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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

संविधान का बुनियादी ढांचा (सिद्धांत)


संविधान का बुनियादी ढांचा (सिद्धांत)


संविधान, संसद और राज्य विधान मंडलों या विधानसभाओं को उनके संबंधित क्षेत्राधिकार के भीतर कानून बनाने का अधिकार देता है। संविधान में संशोधन करने के लिए बिल संसद में ही पेश किया जा सकता है, लेकिन यह शक्ति पूर्ण नहीं है। यदि सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि संसद द्वारा बनाया गया कानून संविधान के साथ न्यायसंगत नहीं है तो उसके पास (सुप्रीम कोर्ट) इसे अमान्य घोषित करने की शक्ति है। इस प्रकार, मूल संविधान के आदर्शों और दर्शनों की रक्षा करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने बुनियादी संरचना सिद्धांत को निर्धारित किया है। सिद्धांत के अनुसार, संसद संविधान के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन या उसे नष्ट नहीं कर सकती है।
बुनियादी संरचना के विकास
"बेसिक स्ट्रक्चर (बुनियादी ढांचा)" शब्द का उल्लेख भारत के संविधान में नहीं किया गया है। लोगों के बुनियादी अधिकारों और संविधान के आदर्शों और दर्शन की रक्षा के लिए समय-समय पर न्यायपालिका के हस्तक्षेप के साथ यह अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हुयी।
  • पहला संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 को भारत सरकार बनाम शंकरी प्रसाद मामले में चुनौती दी गई थी। संशोधन को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि यह संविधान के भाग III का उल्लंघन करता है और इसलिए इसे अवैध घोषित किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने की शक्ति है। इस तरह का निर्णय न्यायालय में सज्जन सिहं बनाम राजस्थान सरकार के मामले में दिया था।
  • 1967 में गोलक नाथ बनाम पंजाब सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के फैसले को खारिज कर दिया। सुप्रीम ने कहा संसद के पास संसद के पास संविधान के भाग III में संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि मौलिक अधिकार श्रेष्ठ और स्थिर हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, अनुच्छेद 368, केवल संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया की अनुमति देता है और संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन के लिए संसद को पूर्ण शक्तियां नहीं देता है।
  • 1971 में संसद ने 24वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित कर दिया था। अधिनियम ने मौलिक अधिकारों सहित संविधान में कोई भी परिवर्तन करने के लिए संसद को पूर्ण शक्ति दे दी थी। इसने यह भी सुनिश्चत किया गया कि सभी संवैधानिक संशोधन बिलों पर राष्ट्रपति की सहमति जरूरी होगी।
1973 में, केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के मामले मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने गोलकनाथ मामले में अपने निर्णय की समीक्षा द्वारा 24 वें संविधान संशोधन अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट कहा कि संसद को संविधान के किसी भी प्रावधान में संशोधन करने की शक्ति है लेकिन ऐसा करते  समय संविधान का मूल ढांचा बना रहना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बुनियादी संरचना की कोई भी स्पष्ट परिभाषा नहीं दी। यह कहा कि "संविधान के मूल ढांचे को एक संवैधानिक संशोधन द्वारा भी निरस्त नहीं किया जा सकता है"। फैसले में न्यायाधीशों द्वारा सूचीबद्ध की गयी संविधान की कुछ बुनियादी विशेषताएं निम्नवत् हैं:
संविधान की बुनियादी विशेषताएं इस प्रकार हैं:
  • संविधान की सर्वोच्चता
  • सरकार की रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक प्रपत्र
  • संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
  • संविधान का संघीय चरित्र
  • शक्तिओं का विभाजन
  • एकता और भारत की संप्रभुता
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता
सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले
क्रं. सं.
मामला
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
1.
शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार, 1951
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय- संसद को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की शक्ति है
2.
सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार, 1965
संसद को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की शक्ति है
3.
गोलक नाथ बनाम पंजाब सरकार, 1967
संसद को संविधान के भाग III (मौलिक अधिकारों) में संशोधन करने का अधिकार नहीं है।
4.
केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार, 1971
संसद के किसी भी प्रावधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन बुनियादी संरचना को कमजोर नहीं कर सकती है।
5.
इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण, 1975
सुप्रीम कोर्ट ने बुनियादी संरचना की अपनी अवधारणा की भी पुष्टि की
6.
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार, 1980
बुनियादी विशेषताओं में 'न्यायिक समीक्षा' और 'मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन' को जोड़कर बुनियादी ढांचे की अवधारणा को आगे विकसित किया गया।
7.
कीहोतो होल्लोहन बनाम जाचील्लहु, 1992
'स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव' को बुनियादी विशेषताओं में जोड़ा गया।
8.
इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार, 1992
'कानून का शासन, बुनियादी विशेषताओं में जोड़ा गया।
9.
एस.आर बोम्मई बनाम भारत सरकार, 1994
संघीय ढांचे, भारत की एकता और अखंडता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक न्याय और न्यायिक समीक्षा को बुनियादी विशेषताओं के रूप में दोहराया गया



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